Thursday, September 28, 2017

एकला चोलो रे....

दुर्गा अष्टमी की संध्या थी... मेरे अंदर का बंगालीपन अचानक जाग उठा और मैं गाने लगी...
"जोदी तोर डाक शुने केयू ना आशे तोबे एकला चोलो रे...."
एक दो लाइने गाने के बाद मिष्टी भी साथ हो ली और हम दोनों संग संग गाने लगे...

" जोदी केयू कोथा ना कोये....ओरे ओरे ओ ओभागा केयू कोथा ना कोये....जोदी शोबाई थाके मूक फिराये शोबाई कोरे भोये..."

गाना खत्म होते ही मिष्टी के चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान थी...
मैने उसे बताया कि ये रबिन्द्रनाथ टेगोर का लिखा हुआ गाना है।

मिष्टी ने तुरंत पूछा - "क्या मतलब है इसका?"

मैंने बताया - " इसका मतलब है कि अगर तुम्हारे बुलाने पे कोई न आये तो तुम अकेले चलो।"

मिष्टी - "ऐसा क्यों कहा रबिन्द्रनाथ टेगोर ने?

मैंने थोड़ा इतिहास समझाया और कहा कि ये आज़ादी की लड़ाई के दौरान लिखा हुआ गाना है। शायद वो कहना चाहते थे कि इस लड़ाई में कोई अगर तुम्हारा साथ न भी दे तो तुम अकेले ये लड़ाई लड़ो।

मिष्टी - पर वो तो राइटर थे...लड़ाई तो नही करते थे।

मैं - हाँ पर हो सकता है, ये उन्होंने आज़ादी की लड़ाई लड़ने वालों को सोच कर लिखा हो।

मिष्टी - (बिल्कुल तपाक से) मम्मा ये भी तो हो सकता है कि वो अकेले ही लिखते थे ना...

मैं - हाँ...

मिष्टी - तो उन्होंने किसीको लिखने के लिए बुलाया हो और वो नही आये तो वो अकेले ही लिखते रहे।

मैं - हाँ बेटू..ऐसा तो हमने कभी सोचा ही नही...ऐसा हो सकता है।

मुझे अपनी बात मानते देख मिष्टी खुश हो गयी और फिर से अपने खेल में मस्त हो गयी।

सच है! शायद रबिन्द्रनाथ ने इस बात की कभी परवाह नही की, कि कोई उनकी तरह लिख रहा है या नही...उन्हें जो कहना था...जो लिखना था ...वो अकेले ही लिखते चले गए... शायद तभी वो राबिंद्रनाथ बन पाए!
लेखक या कवि यदि इस भय से लिखने लगे कि उनके साथ कोई है या नही तो शायद फिर कभी कोई भी लेखक या कवि रबिन्द्रनाथ नही बन पाएगा!

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