Saturday, March 19, 2016

मेरे चेन्नई के घर से सटे छत को आखरी ख़त!

बस कुछ दिन और... फिर जाना होगा। तुम बहोत याद आओगे।
अच्छा तुम्हे मेरी याद आएगी? अब कौन आएगा घंटो तुम्हारे साथ चाँद को एक छोर से दूसरे छोर जाता हुआ देखने? कौन रबिन्द्र संगीत सुनते सुनते, खुद गाकर तुम्हे भी सुनाने लगेगा... याद है?.... " तोमार खोला हवाए..." और वो... "आमारो पोरानो जाहा चाय... तुमी ताई.."

शोत्ती... तुमी ताई छिले!!

नीचे से जब उस दिन बाढ़ आ जाने पर सारा सामान ऊपर ले आये थे तो सब मजबूरी सा लग रहा था। पर अब... अब लगता है काश शुरू से यही होते। कितनी बेवकूफ थी मैं... चंद सीढियाँ चढ़ने के डर से नीचे के मकान में रही... जहां से न चाँद दिखता था न चिड़ियों की आवाज़ सुनाई देती थी।

यहाँ आई तो तुम मिले। शाम को वो मंदिर की घंटीयो के बीच मस्जिद की आज़ान... मानो आसमान तक पहोच रही होती थी। मंत्रो और अल्लाह.... की पुकार एक साथ... तुम न होते तो कैसे सुनती।

वहाँ?? हाँ वहाँ पार्क है, खुला लॉन है पर तुम तो नहीं हो न। तुम जो सिर्फ मेरे थे.. तुम्हारे ऊपर जितना आसमान था वो पूरा का पूरा मुझे अपना लगता था। जैसे मेरा हिस्सा हो जो वसीहत में मेरे लिए लिखी गयी हो। पार्क या लॉन का आसमान तो हर किसी का होगा। वहाँ किसे सुनाऊँगी रबिन्द्र संगीत? कौन देगा मेरा साथ अल्लाह की आज़ान और भगवान् के श्लोक मिलाने में?

2 comments:

  1. हर रोज तो नहीं पढ़ पाता पर कभी कभी आपका ब्लॉग पढ़ लेता हूँ....
    ये पढ़ कर कलकत्ता याद आगया। ...जब छोड़ कर आरहा था....

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