Monday, March 21, 2016

कविता भूल गए।

दसवी में जब हमें पछत्तर पर्सेंट मिले
तो माँ बाबा के उम्मीदों के कई दीप जले।

हमारी रूचि को तब मिट्टी में मिलाया गया
और हमे साइंस में एडमिशन दिलाया गया।

माँ बाबा की खातिर हम भी खूब पढ़े
और बारवी से भी किसी तरह निकल पड़े।

सोचा ...चलो अब साइंस से पीछा छुटा
आराम से अब साहित्य का मज़ा जाए लूटा।

पर बाबा को मुझे इंजीनियर बनाना था
अच्छा वर पाने के लिए डिग्री जो लाना था।

इंजीनियरिंग में घुसते ही हमारी कविताओ का सारा रस निकल गया,
धरती माँ - प्लानेट और चंदा मामा - सॅटॅलाइट में बदल गया।

वर्कशॉप मशीनों का मेला था
पर हर शख्स अपनी मशीन के साथ यहाँ अकेला था।

आर ए एम् राम नहीं रैम बन गया
ये सुनके तो हमारा भक्ति भाव ही खो गया।

जब इन सबके बावजूद हम साहित्य प्रेमी बने रहे
तो इतने असाइनमेंट्स और ट्यूटोरियल दिए गए
कि हम दुसरो की क्या...अपनी भी कविता भूल गए।

हाँ हम अपनी भी कविता भूल गए :D

Saturday, March 19, 2016

मेरे चेन्नई के घर से सटे छत को आखरी ख़त!

बस कुछ दिन और... फिर जाना होगा। तुम बहोत याद आओगे।
अच्छा तुम्हे मेरी याद आएगी? अब कौन आएगा घंटो तुम्हारे साथ चाँद को एक छोर से दूसरे छोर जाता हुआ देखने? कौन रबिन्द्र संगीत सुनते सुनते, खुद गाकर तुम्हे भी सुनाने लगेगा... याद है?.... " तोमार खोला हवाए..." और वो... "आमारो पोरानो जाहा चाय... तुमी ताई.."

शोत्ती... तुमी ताई छिले!!

नीचे से जब उस दिन बाढ़ आ जाने पर सारा सामान ऊपर ले आये थे तो सब मजबूरी सा लग रहा था। पर अब... अब लगता है काश शुरू से यही होते। कितनी बेवकूफ थी मैं... चंद सीढियाँ चढ़ने के डर से नीचे के मकान में रही... जहां से न चाँद दिखता था न चिड़ियों की आवाज़ सुनाई देती थी।

यहाँ आई तो तुम मिले। शाम को वो मंदिर की घंटीयो के बीच मस्जिद की आज़ान... मानो आसमान तक पहोच रही होती थी। मंत्रो और अल्लाह.... की पुकार एक साथ... तुम न होते तो कैसे सुनती।

वहाँ?? हाँ वहाँ पार्क है, खुला लॉन है पर तुम तो नहीं हो न। तुम जो सिर्फ मेरे थे.. तुम्हारे ऊपर जितना आसमान था वो पूरा का पूरा मुझे अपना लगता था। जैसे मेरा हिस्सा हो जो वसीहत में मेरे लिए लिखी गयी हो। पार्क या लॉन का आसमान तो हर किसी का होगा। वहाँ किसे सुनाऊँगी रबिन्द्र संगीत? कौन देगा मेरा साथ अल्लाह की आज़ान और भगवान् के श्लोक मिलाने में?

Tuesday, March 8, 2016

इक मुखौटा सा है जो हम पहनते है...

इक मुखौटा सा है जो हम पहनते है,
और पहनकर बाजार में बिकने निकल पड़ते है।

कोई मुस्कान खरीदता है
कोई मासूमियत
कोई झूठी पहचान खरीदता है,
कोई खोखली नियत

कोई हंसने के दाम देता है
कोई चलते रहने का इनाम
कोई अच्छी बाते खरीद लेता है
तो कोई झूठी शान...

इक मुखौटा सा है जो हम पहनते है!

मुखौटा खुलते ही खरीददार रूठ से जाते है,
मुस्कान, बाते, नियत, शान सब लौटाने आते है,
असली चेहरा इक बार फिर बाजार में बेच नहीं पाते है..
और अगली सुबह फिर वही मुखौटा पहन हम बाजार में बेच आते है...

इक मुखौटा सा है जो हम पहनते है!

Sunday, March 6, 2016

रिफ्यूजी

"वो लोग मामा के घर में घुस चुके थे। सब भागने लगे... मैं भी भागा.... । मामा का घर 3 गाँव छोड़कर था, हम भागकर ही पहुँच जाते थे, जब मन करता। पूरा रास्ता याद था पर उस दिन मैं डर गया था..कुछ 11-12 साल का था मैं तब। भागते भागते नदी किनारे पहुँच गया पर कच्ची पुल पर से चलने में डर लगने लगा... इतने में दादा (मामा का बेटा) ने पीछे से आकर मुझे पकड़ लिया और मुझे घर पहुंचा दिया। कुछ दिनों बाद वो लोग हमारे गाँव में भी आ गए। लोगो को चुन चुन के मारने लगे। औरतो को उठाकर ले जाने लगे। हम सब छोड़कर भाग आये।" - बाबा

मेरे बाबा उन सैंकड़ों बच्चों में से एक थे जिन्हें बांग्लादेश की आरामदायक ज़िन्दगी को रातो रात छोड़कर भारत में रिफ्यूजी की तरह भाग आना पड़ा। आज भी उनकी पहचान रिफ्यूजी की तरह की जाती है। बांग्लादेश में ज़मींदारों की तरह रहने वाले इन लोगो को महाराष्ट्र के सबसे बंजर इलाके में 5 -5 एकड़ ज़मीन दे दी गयी। बिना किसी आरक्षण या सहूलियत के इन सभी लोगो ने अपनी ज़िन्दगी एक बार फिर शून्य से शुरू की।

पर आज जितने भी रिफ्यूजी बंगालियों को मैं जानती हूँ उनके बच्चे अपनी मेहनत से पढ़ लिखकर सबके बराबर खड़े होते है।

इस समुदाय ने न तो कभी आरक्षण माँगा और न ही इस बात का हवाला दिया कि उन्हें रिफ्यूजी समझकर उनके साथ भेदभाव किया जाता है।

मैंने कई बार बाबा को अपने बांग्लादेश के दिनों को याद करते हुए सुना... उनपर हुए अत्याचारो की कहानियां सुनी पर आज तक कभी भारत के खिलाफ कुछ भी कहते नहीं सुना।

मूलतः बांग्लादेशी होते हुए भी उन्हें अपने भारतीय होने पे उतना ही गर्व था और है जितना किसी भी भारतीय को होना चाहिए।

वे सुभाष चंद्र बोस के भक्त रहे... उनके गुम होने के लिए महात्मा गांधी और नेहरू से नफरत करते रहे पर उन्हें भारत से कभी कोई शिकायत नहीं थी। उन्होंने या उनके साथ आये रिफ्यूजी परिवारो ने कभी भारत विरोधी नारे नहीं लगाये।

हम सभी समझते थे कि आरक्षण एक राजनितिक खेल है, जो कभी ख़त्म नहीं हो सकता। चाहे कोई भी राजनीतिक पार्टी आ जाये.. न आरक्षण बदलेगा न समानता आएगी इस देश में। पर इस असामनता के बीच, रिफ्यूजी होने की हीनता लिए और खाली जेबो को लिए हम संघर्ष करते रहे। और तब तक नहीं रुके जब तक लोगो को हमारी शिक्षा और सामाजिक स्तर से हमारा इतिहास भूल जाना पड़े।

हमने भारत से आज़ादी नहीं मांगी... हम भारत में रहकर, भारतीय बनकर वहां पहुचे जहाँ भारत को हम पर गर्व हो... जहाँ भारत पर हम आरक्षित बनकर बोझ नहीं बल्कि सक्षम बनकर उसकी प्रगति के प्रतीक बने।